Tuesday, August 20, 2013

आर्थिक संकट नहीं कोई,संकट है कृषि का।

आर्थिक संकट नहीं कोई,संकट है कृषि का।


पलाश विश्वास


मूसलाधार अस्मिताएं महज सलवाजुड़ुम है देशव्यापी।चूतिया बना रहे हैं विशेषज्ञ,1991 संकट नही,कृषि संकटका परिणाम है अमोघ।ग्लोबीकरण का धर्मोन्मादी प्रस्थानबिंदू है वह। अनुत्तरित कृषि यक्ष प्रश्नों और अनुपस्थित भूमिसुधार और अनिवार्यजाति उन्मूलन के कार्यभार को संबोधित किये बिना डालर नियति से बच नहीं सकता मरणासण्ण यह देश।



मूसलाधार अस्मिताएं महज सलवाजुड़ुम है देशव्यापी।चूतिया बना रहे हैं विशेषज्ञ,1991 संकट नही,कृषि संकटका परिणाम है अमोघ।ग्लोबीकरण का धर्मोन्मादी प्रस्थानबिंदू है वह। अनुत्तरित कृषि यक्ष प्रश्नों और अनुपस्थित भूमिसुधार और अनिवार्यजाति उन्मूलन के कार्यभार को संबोधित किये बिना डालर नियति से बच नहीं सकता मरणासण्ण यह देश।



तिलिस्म की दीवारें,तिलिस्म की किलेबंदी बहुत मजबूत हैं प्यारे। हत्यारे हैं चारों तरफ घात लगाये बैठे।नप जायेंगी गरदनें देखते देखते। पतकारिता के लिए भी कारोबार का लाइसेंस खत्म करने वाले लाइसेंस जमाना ला रहे हैं।


विचारों पर कड़ा पहरा है।ख्वाबों पर पाबंदी है।सुनामी के घिरे हुए हैं हम इनदिनों।कहां कट कर गायब हो गये हाथ,कहां गिर गये पांव और कहां को गया चेहरा,कुछअता पता नहीं है।खुले बाजार के भूल भूलैय्या में मेले में कोये अकबर अमर एंतोनी का मिलाप भी असंभव।


माफ करना, हमारे अग्रज पी साईनाथ, माफ करना जयंत हार्डिकर ,माफ करना डुंगडुंग,माफ करना हिमांशु भाई,माफ करना तमाम पत्रकार लेखक मित्र!आप जो किसान आत्महत्याओं का आंखों देखा हाल लिखत बताते रहे हैं,आप जो तबाही के आलम को दिखाते रहे हैं,जो जल जंगल जमीन के अधिकारों की आवाज बुलंद करते रहें हैं,वह किसी व्यक्ति या किसी समूह या किसी भूगोल की त्रासदी नहीं है।यह भारत वर्ष नामक एक मृतप्रायदेश की मृत्युयंत्रणा है।यह हमारे देश में कृषि आधारित उत्पादन प्रणाली की शोकगाथा है।यह वह मनुस्मृति व्यवस्था का उत्तराधुनिक कर्मफल सिद्धांत है,जिसके गर्भ में जनमी चूंती हुई अर्थव्यवस्था,जिसके तहत गरीबी की थाली में परोसी जाती अमीरी जहरीली।


जैविकी बीजों से अंकुरित है यह अर्थ संकट। भोपाल गैसत्रासदी की कोख से निकली कीटनाशकसमृ्द्ध यह भोग उत्सव कार्निवाल कैसिनो संस्कृति।जिसमें लोक का अवसान है।मातृभाषाएं मृत हैं।मरे हुए खेत हैं और अनंत रक्तनदियों का उत्स है। रक्तबीज की तरह भूदेवताओं का वर्चस्ववादी संसार यह,जिसके रग रग में जाति वर्चस्व है और भूमि पर एकाधिकार है।मौजूदा संकटकी जमीन है यह।


विश्वभर में सबसे विकसित देश अमेरिका में भी कृषि उपेक्षित नहीं है।भारत से तेज विकास दर वाले चीन ने कृषि का दामन नहीं छोड़ा है।जापान में सबसे कम खेतीयोग्य उपजाऊ भूमि है,हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के जापान यात्रा अनुभव से जाहिर है कि कृषि से वंचित होने की वजह से उन्होंने संसाधन प्रबंधन और उत्पादन प्रमाली में क्या तालमेल बैठाया है।


आज जिस शेयर बाजार संकट और रुपये की गिरावट पर त्राहि त्राही है चतुर्दिक और मुद्राकोष गच्छामि का मंत्रोच्चार है,वह कोई आर्थिक संकट नहीं है ।बल्कि कृषि संकट है।


ग्राम्य भारत की शवसाधना से ही हुआ हिंदुत्व का पुनरुत्थान और तिलिस्म का कारोबार इसी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर आधारित है।कृषिजीवी बहुजन जनता को धर्मांध बनाकर उसे गांवों और खेतों से बेदखल बनाते हुए खुले बाजार के वधस्थल में मारे जाने के लिए छोड़ दिया गया है।असली संकट यह है।


आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के लिए फिर यात्राओं और परिक्रमाओं,जीर्णोद्धार के कार्यक्रम त्वरित हैं।


त्वरित है कृषिजीवी जनता का उनके ही मृत्यु उत्सव के लिए धार्मिक ध्रूवीकरण।


अर्थ व्यवस्था के संकट का प्रस्थान बिंदू नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व की अश्लील नग्न विभाजिका है।निर्मम ध्रूवीकरण है बारतीयउत्पीड़ित मूक वधिर कृषि जीवी बहुसंखय जनगण का।


हम कितने बुरबक हैं कितने अंधे हैं,खगड़िया में सैंतीस श्रद्धालुओं की सामूहिक आत्महत्या इसका ज्वलंत प्रमाण है।


विवेक और बुद्धि पर आस्था है भारी।कर्मकांड बना देते हैं दृष्टिअंध।


सौदागरों को हमारी कमजोर नस की पहचान खूब मालूम है।ह


हमारी धड़कनें बेदखल हैं इन दिनों।


आसमान में छेद कर दिया है उन्होंने जहां से हमारे सर सुनामियों की मूसलाधार है और हम धर्मस्थलों को इस कयामत से बचने के लिए चतरी मानकर चल रहे हैं।


हम खगड़िया रेल दुर्घटना के लिए रेलवे को क्लीन चिट नहीं दे रहे हैं। रेल परिचालन संबंधी लापरवाहियां अपनी जगह है।


लेकिन जल चढ़ाने वाले समूहों के चेहरे पूरे देश में एक से हैं।उनकी पहचान एक है।वे भारतीय कृषि के ही वंशज हैं उसीतरह जैसे ईदगाह के नमाजी।


कहीं भी किसी भी समय धार्मिक उन्मतत्ता के प्रबल आवेग में हमारे ये लोग सबकुछ थाम लेने की उम्मीद करते हैं और अपना सारा संकट धर्मस्थलों में समर्पित करते हैं।


आस्था का जो भी रंग हो,इस भवितव्य में अंतर नहीं है।वसंत को हम धर्मोन्मादी वज्रगर्भ विपर्यय में तब्दील कर लेते हैं कहीं भी।यहां तक कि ग्लोब के किसी भी कोने में।क्योंकि धर्मोन्माद हमारा वजूद है।हम जहां जाते हैं,सात साथ जाता है धर्मोन्माद।


विडंबना है कि आस्थाओं के इस भंवर में हमें बहुमंजिली तिलिस्म और भूलभूलैय्या की नींव कहीं दीखती ही नही है।


हमारा इतिहास बोध शून्य है और वैज्ञानिक चेतना शिक्षा बाजार के अनंत विस्तार के बावजूद लगातार कुंद है।


योग वियोग और विश्लेषम की देशज परंपराओं और विरासत से कटे हुए यंत्रचालित होते होते अब खुद ही यंत्र में तब्दील हो गये हैं।


दिलो दिमाग के बिना संवेदनहीन यंत्र।


अपने स्वजनों का निर्मम वध हमें विचलित नहीं करता।


कमांड मिला नहीं कि हो गये शुरु और करने लगे रक्तनदियों में पुण्यस्नान।


कृषिजीवी अब करसेवी हो गये।


मौजूदा संकट का प्रस्थानबिंदू यही है


हरितक्रांति ने ही भारत में खुले बाजार के बीज बोये,इस सत्य को आत्मसात करने के लिए आरोपित शास्त्रों और विचारधाराओं और सिद्धांतोंसे गढ़ा हमारा इतिहासबोध कोई मदद नहीं कर सकता।


1991 का संकट परिणाम  है।कारण नहीं।


हरित क्रांति का अनिवार्य परिणाम है वह।


भूमि सुधार लागू न करने की रणनीति थी हरितक्रांति और देश को अकूत कालेधन और अबाध विदेशी पूंजी निवेश की परियोजना थी वह।


उसी की अनिवार्य परिणति था वह 1991 का संकट,जिसे सत्ता हस्तांतरण की नियतिबद्ध बेला से रचा जाता रहा निरंतर।


संघ परिवार निमित्तमात्र है। बाकी कारपोरेट महाभारत है।यह कुरुक्षेत्र भारतभूमि इसीलिए अब कारपोरेट वधस्थल है,जहां वध्य कतारबद्ध हैं अपने ही वध के लिए प्रतीक्षारत।आकुल व्याकुल।


अफीम का नशा ही ऐसा कुछ है। अफीम से शायद अब मुक्त है चीन। लेकिन इस अफीम नशा से हमारी मुक्ति असंभव है।


1991 वह वह बिंदु है,जो रचा गया बहुत शातिराना कला कौशल से।

ताकि वह भारत में नवउदारवाद का प्रस्थानबिंदु बन जाये।महाकाव्य नायक की तरह ग्लोबीकरण के अवतारों का जन्मवृत्तांत रच दिया गया था बहुत पहले और सीधे वे वाशिंगटन के पवित्र स्वर्ग से अवरित हुए इस मर्त्यभूमि में।


कथा यह अमृतसमान।


जो बांचै सशरीर वैकुंठ विराजे।


1991 का वह अश्वमेधी प्रथम कर्मकांड भारतीय कृषि के ताबूत में आखिरी कीलें ठोंकने का समारोह था और कुछ नही।


वह भारतभूमि पर विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष और उनकी ही संतान कारपोरेट प्रभुओं के अवतरण के सिवाय कुछ भी तो नहीं।


फिर जिनकी आहटों की चर्चा में विद्वतजन फिर कृषि संकट के यक्षप्रश्न को अनुत्तरित छोड़ रहे हैं।कालाधन के लिए आममाफी की गुहार लगा रहे हैं और वित्तीयघाटा के बहाने नयेकिस्म के आखेट की विधाएं और व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र रच रहे हैं।


सिंहद्वार पर बहुत तेज है दस्तक और अब भी सो रहे हो मोहन प्यारे!


दरअसल सिलसिलेवार देखा जाये तो भारत में हर बड़ी घटना दुर्घटना के पीछे वही कृषि संकट है।


मसलन हरित क्रांति से पंजाब के किसानों को खेती की पद्धति बदलने,महंगे उर्वरक,महंगी सिंचाई,महंगे बीज,महंगी मशानों की वजह से उत्पादन लागत में वृद्धि और उसकी तुलना में कृषि उपज की ढीले भाव के जिस अस्तित्व विनाशक संकट से जूझना पड़ा,राष्ट्र ने उसे संबोधित ही नहीं किया।


संबोधित करतेत तो पूंजी वर्चस्व का खेल वही खत्म हो जाता।


पंजाब के हरितक्रांति जनित उस कृषि संकट के गर्भ से अकाली राजनीति का पुनरुत्थान हुआ।


कृषि संकट को सुलझाने के बजाय राष्ट्र ने पंजाब को धर्म राजनीति की सुनामी में फेंक दिया।


असंतुष्ट कृषिजीवी जब जनविद्रोह की राह पर चल पड़े तो उनको और भ्रमित करने के लिए पैदा कर दिये गये धर्मोन्मादी भष्मासुर।


संकट जब तीव्रतर हुआ तो दमन और उत्पीड़ने का वह सिलसिला शुरु हुआ कि राष्ट्र की एकता और अखंडता को अभूतपूर्व संकट हो गया।


एक प्रधानमंत्री की हत्या हो गयी तो प्रतिशोध में भारत के सबसे कुशल किसानों का कत्लेआम  शुरु हो गया।


सिखों के उस नरसंहार का प्रस्थान बिंदू भी आस्थाओं का पुनरुत्थान और आस्थाओं का ध्रूवीकरण था।हम उस कालखंड को भारत राष्ट्र के आतंकवाद विरोधी युद्ध बतौर चिन्हित करते हैं।भारतीय कृषि संकट बतौर नहीं।यही हमारा रुग्ण इतिहासबोध है।यही है आयातित इतिहास दृष्टि जो अंततः एकाधिकारवादी आक्रमण की विजयगाथा से शुरु और समाप्त हो जती है।वहा राजधानियों का वर्चस्व है,जनपद कहां होते ही नहीं हैं।खूनी तलवारों की विजयगाथा में कहीं नहीं है खेतों और खलिहानों,गांवों और घाटियों का इतिहास।जनशत्रुता ही प्रश्तानबिंदू है इस इतिहासबोध का।


गुजरात के कारपोरेटी विकास माडल को भारत के विकास के माडल बतौर जनादेश विक्लप बनाये जाने की धर्मोन्मादी सोशल इंजीनियरंग और फिर धार्मिक ध्रूवीकरण की हवाएं गरम हैं देशभर में।इतनी गरम हवाएं उत्तुंग शिखरों के पार ग्लेशियर भी पिघलने लगे।झीले की दीवारे टूटने लगीं।घटियां दहकने लगीं।जंगल जंगल दावानल है।और नगर महानगर गांव देहातधर्मोन्मादी अभयारण्य।


गुजरात गौरव के इस कायाकल्प के पीछे जो नरसंहार गाथा है, जो मानवता के विरुद्ध युद्धअपराधों का महाकाव्यिक आख्यान है, उसकी जड़ में कच्छ के रण की तरह कारपोरेट रण में सूखे लवणाक्त खेतों के हड़प्पा मोहंजोदोड़ो अवशेष मिलेंगे।


साठ के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और राष्ट्र ने चारु मजुमदार के दस्तावेजों में उठाये बारतीयकृषि के यक्षप्रश्नों के जवाब खोजने की जहमत उठायी होती तो माओवाद के दमन के लिए आंतरिक सुरक्षा कारपोरेट कंपनियों, औद्योगिक घरानों और सीआईए मौसाद को सौंपने की नौबत नहीं आती।लेकिन कृषि संकटको संबोधित किये बिना राष्ट्र ने पूंजी प्रवाह की कीमतपर कृषि की ही हत्या कर दी और देश के चप्पे चप्पे में रचदिया सलवाजुड़ुम।नाना प्रांत में नाना किस्म के सलवा जुड़ुम।क्षेत्रीय अस्मिता और प्रांतीय जाति वर्चस्व की अस्मिताओं का एक मुकम्मल गृहयुद्ध रच दिया गया सार्वजनीन कृषि महिषाषुर वधोत्सव की तरह।


तेलंगाना पृथक आंदोलन के पीछे उस इतिहास को हम सिरे से भूल गयेकि कभी खेत जागे थे वहां,कभी भूमिसुधार के निर्णायक पानीपथ हारा कृषिमय भारत।भूमिसुदार जाति उन्मूलन परिकल्पना का प्रस्थानबिंदु है।भूसंपत्ति के अधिकार बहाल किये बिना मनुस्मृति राज का असंभव असंभव है। भूमिसुधार के अवरोधक बतौर प्रतिषेधक हरित क्रांति का आयात हुआ पहले और फिर अमेरिकी देवलोक से विमानमार्ग से आये तमाम विश्वबैंक पुत्र पुत्रियां,उत्तर आधुनिक देव देवियां।


ग्लोबीकरण,निजीकरण और उदारीकऱम मनुस्मृति राज, एकाधिकारवादी वर्चस्व और सत्ताव्रगीयभूदेवताओं के लिए आजन्म आरक्षण का स्थाई बंदोबस्त है।


इससे पहले चियरिनों के अश्लील आइटम डांस के माहौल में भारतीय बहुसंख्य कृषिजीवी जनगण.जो हजारों जातियों, असंख्य भाषाओं, क्षेत्रीयताओं,लोक परंपराओं, स्मृतियों,आस्थाओं की परस्परविरोधी अस्मिताओं में विभाजित रहे हैं हजारों वर्षों से,उन्हें अखंड वैदिकी हिंसारससमृद्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद में निष्णात कर दिया गया।

प्रतिरोधहीन रहा यह एकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण।


आज हम उपनिवेश हैं।


हमारी आज कोई अर्तव्यवस्था नहीं है सिर्फ इसलिए कि हमने कृषि आधारितअपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजी की विश्वसुंदरियों के फैशनपरेड को समर्पित कर दिया।


हमारी राष्ट्रीयता सेक्सी डियोड्रेंट की तरह महकती है,पर उसमें न माडी की सोंधी महक है और न फसलों की सुगंध।


हम आयातित अनाज,आयातित फसल ,आयातित सोना, आयातित युद्ध गृहयुद्ध और उसके तमाम उपकरण,आयातित आतंक और आयातित आतंकविरोधी युद्ध,आयातित ईंधन,आयातित परमाणु ऊर्जा,आयातित तकनीक,आयातित स्पेक्ट्रम.आयातित कोयला,आयातित विधाओं और माध्यमों,आयातित प्रेमिकाओं और आयातित पत्नियों,आयातित धर्मयुद्ध,आयातित विचार,आयातित क्रांति,आयातित भ्रांति के उपबोक्ता डालर प्रजा है।


हम निर्माता नहीं हैं।न हम उत्पादक हैं।


हम कोई देश नहीं खंडित विखंडित एक दूसरे के विरुद्ध अनवरत युद्धरत खंड खंड उपनिवेश हैं।


पहले रजवाड़े थे।अब कारपोरेट हैं।पहले रियासतें थीं अब कारपोरेट कंपनियां हैं और हैं कारपोरेट पार्टियां और उनकी कारपोरेटसत्ता।


कारपोरेट राजकाज,कारपोरेट राजनीति और कारपोरेटदेश की कोई अर्थव्यवस्था नहीं होती।


इसीलिए सन् 1991 कटआफ ईयर मात्र है जब हमने आयातित ईश्वरीय कर्मकांड के मार्फत डालर क्रयशक्ति को अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता का पर्याय बना दिया।


मौजूदा आर्थिक संकट सही मायनों में 1991 में वास्तविक इतिहास के तमयुग का आरंभ है,जहां से हमारे स्नायुतंत्र में वियाग्रा और जापानी तेल का अनुप्रवेश हुआ और भारतीयजनता का कंडोम कायाकल्प।


जिसका प्रयोग सिर्फ राजकाज के लिए जरुरी जनादेश निर्माण उपभोतक्ता सामान बतौर होता है।


जिसकी न कोई मति है  न सम्मति।जिसकी न कोई चेतना है और न कोई आधार।


उसकी पहचान डिजिटल।उसका वजूद बायोमेट्रिक।


भारतीयअर्थसंकट का कथासार यही है।


बाकी जो बचा प्रक्षेपित आंकड़े हैं।विदेशी रेटिंग हैं।विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीयमुद्राकोष के विभ्रम हैं और कारपोरेट वित्तप्रबंधन का ब्लाकबस्टर लुंगी नाच के मध्य योजना आयोग के सौजन्य से अनवरत फिक्सिंग मिक्सिंग सेक्सिंग और परिभाषा परिवर्तन है।


कुल मिलाकर हम जनगण ही इस कृत्तिम अर्थ संकट का कर्मफल भोगने के लिए अभिशप्त है। कारपोरेट राज के लिए लाखों करोड़ों का सालाना कर्ज माफी है।औद्योगिक कारोबारी है राहतें हैं।प्रोत्साहन है।भूमि उपहार है।कालाधन के लिए आम माफी है।विदेशी संस्तागत निवेशक हमारी जमा पूंजी हमारा भविष्य लूट ले जाये,इसके लिए सांड़ों और भालुओं का आईपीएल है शेयरबाजार।


नरभक्षियों का अभयारण्य बन गया है यह देश।



डालर से नत्थी हो गयी अर्थ व्यवस्था।न कृषि उत्पादन है और न औद्योगिक उत्पादन।सिर्फ अंधाधुंध शहरीकरण है और अधाधुंध औद्योगीकरण है। औद्योगीकरण है , लेकिन उत्पादन है नहीं।देखिये विडंबना।शहरीकरण है कृषि समाज को उपभोक्ता बनाने के लिए।



बौद्धमय भारत का अवसान कितना रक्ताक्त होगा,उसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि सेज के लिए,नयी राजधानियों के लिए,बड़े बांधों के लिए,कारपोरेट परियोजनाओं के लिए, इंफास्ट्रक्चर के लिए, परमाणु ऊर्जा के लिए,ऊर्जा परियोजनाओं और खान परियोजनाओं के लिए कानून और संविदान की धज्जियां उड़ाते हुए कैसे चला बदखली का नरसंहार अभियान,जिसके अपरिहार्य अंग हैं धर्मस्थल निर्माण रथयात्रा और धर्मस्थल विध्वंस,गुजरात का नरसंहार।


हम भूल गये कि खानों में तब्दील बेदखल खेतों के  मध्य झारखंड आंदोलन हुआ और पांचवी छठीं अनुसूचियों के साथ साथ वनाधिकार की लड़ाई अभी अधूरी है।


हम असम आंदोलन के खेतों को देखने को अभ्यस्त नहीं हैं।


हमने अभी कश्मीर देखा ही नहीं।


देखा नही हमने पूर्वोत्तर।


दक्षिणात्य हमारे लिए आर्यावर्त का उपनिवेश है विजित।


पर्यटन और धार्मिक प्रटन के लिए हामालयको जानने वाले हम अब भी हिमाल। को देख ही नहीं सकें।


देश के आदिवासी अस्पृश्य भूगोल हमारे लिए राष्ट्रद्रोह के पर्याय है।


अर्थ संकट के रंगभेदी महाकाव्यिक आख्यान का स्वरुप यह है।


राष्ट्र चिन्हित करता है घुसपैठिया, उग्रवादी,आतंकवादी,माओवादी और राष्ट्रद्रोही।फिर अनंत मुठभेड़ों का सिलसिला।कोरपोरेट कारोबार इसी तरह चलता है। अनुत्तरित रह जाते रहे हैं कृषि प्रश्न हमेशा,जो भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद है।फर्क यह है कि कारपोरेट सत्तावर्ग ने अब भारतीयअर्थव्यवस्था की बुनियाद बतौर भारत अमेरिका परमाणु संधि और अमेरिका इजराइल सैन्य गठजोड़ को स्थानापन्न किया है।भारतीयअर्थव्यवस्था का बुनियादी संकट का प्रस्थानबिंदु यह है,1991 हरगिज नहीं।


सिंहद्वार पर दस्तक हैं फिर भारी।

जाग सको तो जाग जाओ भइया।


वरना होइहिं वही जा अमेरिकी राम रचि राखा।


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